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समकालीन विश्व में लोकतंत्र | NCERT CLASS 9th POLITICAL SCIENCE CHAPTER 1

समकालीन विश्व में लोकतंत्र    लोकतंत्र के दो किस्से  चीले जिंदाबाद ! चिलवासी जिंदाबाद ! मजदुर जिंदाबाद ! ये साल्वाडोर आयेन्दे के आखिरी भाषण के कुछ अंश है |  वे दक्षिण अमेरिका महाद्वीप के एक प्रमुख देश, चीले के राष्ट्रपति थे |  यह भाषण उन्होंने 11 सितम्बर, 1973 की सुबह दिया था  दिन फौज ने उनकी  सरकार का तख्तापलट कर दिया था |   आयेन्दे, चीले की सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक थे और उन्होंने 'पॉपुलर यूनिटी' नामक गठबंधन का नेतृत्व किया |  1970 में राष्ट्रपति चुने जाने के बाद से आयेन्दे  गरीबो और मजदूरों के फायदे वाले अनेक कार्यक्रम शुरू कराए थे |  इनमे शिक्षा प्रणाली में सुधार , बच्चो को मुफ्त दूध बाटना और भूमिहीन किशानों को ज़मीन बाँटने के कार्यक्रम शामिल थे | उनका राजनैतिक गठबंधन विदेशी कम्पनियो द्वारा देश से ताम्बा जैसी प्राकृतिक सम्पदा को बाहर ले जाने के खिलाफ था | उनकी नीतियों को मुल्क में चर्च, जमींदार वर्ग और आमिर लोग पसंद नहीं करते थे | अन्य राजनैतिक पार्टिया इन नीतियों के खिलाफ थीं |  1973 का सैनिक तख्तापलट  11 सितंबर 1973 को चीले में जो कुछ हुआ उसे सैनिक तख्तापलट कहते है |  इस

Vedic Education System in Hindi | प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली

Vedic Education System in Hindi | प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली 

The-Vedic-education-system-in-India-भारत-में-वैदिक-शिक्षा-प्रणाली, Mention the Obectives of Vedic and Buddhist Education | वैदिक और बौद्ध शिक्षा के दृष्टिकोणों का उल्लेख
Vedic Education System

Bhartiya Ved | भारतीय वेद 

Bhartiya Ved  भारतीय वेद, वैदिक काल
Bhartiya Ved 



वैदिक काल :- भारतीय वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद ) संसार के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं | सामान्यतः वेदों को धार्मिक ग्रंथों के रूप में देखा समझा जाता है , वेदों की रचना कब और किन विद्वानों ने की , इस विषय में भी विद्वान एक मत नहीं हैं | जर्मन विद्वान मेक्समूलर सबसे पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने भारत आकर इस क्षेत्र में शोध कार्य शुरू किया | उनके अनुसार, वेदों में सबसे प्राचीन ऋग्वेद है और इसकी रचना 1200 ई0 पू0 में हुई थी| लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने ऋग्वेद में वर्णित नक्षत्र स्थिति के आधार पर इसका रचना काल 4000 ई0 से 2500 ई0 पू0 सिद्ध किया है| इतिहासकार हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में प्राप्त अवशेषों के आधार पर हमारी सभ्यता एवं संस्कृति को केवल ई0 पू0 3500 वर्ष पुरानी मानते हैं | हमारे देश भारत में ई0 पू0 7वीं शताब्दी में लोक भाषा प्राकृत और पाली थी | हमारे देश में संस्कृत भाषा का प्रयोग होता था वेदों की संस्कृत भाषा इतनी समृद्ध एवं परिमार्जित है और उनकी विषय सामग्री इतनी विविध , विस्तृत एवं उच्च कोटि की है कि उस समय इनके विकास में काफी समय अवश्य लगा होगा |
भारतीय वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद ), Vedic Education
भारतीय वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद )
                               
                        एफ0 डब्लू0 थॉमस के शब्दों में - ऐसा कोई देश नहीं है जहाँ ज्ञान के प्रति प्रेम इतने प्राचीन समय में प्रारम्भ हुआ हो जितना भारत में या जिसने इतना स्थायी और शक्तिशाली प्रभाव उत्त्पन्न किया हो जितना भारत *(There has been no country except India where the love of learning had so early an origin or has exercised so lasting and powerful influence,- F.W. Thomas) में | और यह बात भी सभी स्वीकार करते हैं कि भारत में 2500 ई0 पू0 से 500 ई0 पू0 तक वेदों का वर्चस्व रहा | इतिहासकार इस काल को वैदिक काल कहते हैं| वैदिक काल में हमारे देश में एक समृद्ध शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ| 

हम क्या जानेंगे ?

  1. वैदिक शिक्षा प्रणाली के मुख्य अभिलक्षण को जान सकेंगे | 
  2. वैदिक कालीन शिक्षा के उदेश्यों , पाठयचर्या , शिक्षण विधिया, अनुशासन आदि को समझ सकेंगे | 
  3. गुरु शिष्य सम्बन्ध को समझ कर आज समाज के सामने आदर्श प्रस्तुत कर सकेंगे | 
  4. वैदिक कालीन शिक्षा के मुख्य शिक्षा केंद्रों के बारे में जान सकेंगे |

शिक्षा की  संरचना एवं संगठन | Structure and Organization of Education

वैदिक कालीन की शिक्षा की संरचना एवं संगठन निम्नलिखित है | 
शिक्षा का अर्थ | Meaning of Education, शिक्षा की  संरचना एवं संगठन | Structure and Organization of Education

         शिक्षा का अर्थ | Meaning of Education

शिक्षा का अर्थ | Meaning of Education

सामान्यतः बच्चों को परिवारों में विद्यारम्भ संस्कार और गुरुकुलों में उपनयन संस्कार के बाद  विभिन्न विषयों में दिए जाने वाले ज्ञान एवं कला-कौशल में प्रशिक्षण को शिक्षा कहा जाता था | यह शिक्षा का संकुचित अर्थ था | परन्तु जब शिष्य गुरुकुल शिक्षा पूरी कर लेते थे तो समावर्तन समारोह होता था और इस समारोह में गुरु शिष्यों को उपदेश यह भी देते थे कि स्वाधयाय में कभी प्रमाद (आलस्य) मत करना | इसका अर्थ है कि उस काल में जीवन भर स्वाध्याय द्वारा ज्ञानार्जन किया जाता था | यह शिक्षा का व्यापक अर्थ था| 

वैदिक काल में शिक्षा निम्न प्रकार थी | 

प्रारम्भिक शिक्षा- वैदिक काल में प्रारम्भिक शिक्षा की व्यवस्था परिवारों में होती थी | लगभग 5 वर्ष की आयु पर किसी शुभ दिन बच्चे का विद्यारम्भ संस्कार किया जाता था | यह संस्कार परिवार के कुल पुरोहित द्वारा कराया जाता था | बच्चे को स्नान कराकर नए वस्त्र पहनाये जाते थे और कुल पुरोहित के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता था | कुल पुरोहित नया वस्त्र बिछाता था और उस पर चावल बिछाता था | इसके बाद वेद मंत्रो द्वारा देवताओं की आराधना की जाती थी और बच्चे की ऊँगली पकड़कर उसके द्वारा बिछे हुए चावलों में वर्णमाला के अक्षर बनवाए जाते थे | कुल पुरोहित को भोजन कराकर दक्षिणा दी जाती थी | कुल पुरोहित बच्चे को आशीर्वाद देता था और इसके बाद बच्चे की शिक्षा नियमित रूप से प्रारम्भ होती थी |

उच्च शिक्षा- वैदिक काल में उच्च शिक्षा की व्यवस्था गुरुकुलों में होती थी | 8 से 12 वर्ष की आयु पर बच्चों का गुरुकुलों में प्रवेश होता था , ब्राह्मण बच्चों का 8 वर्ष की आयु पर , क्षत्रिय बच्चों का 10 वर्ष की आयु पर और वैश्य बच्चों का 12 वर्ष की आयु पर | गुरुकुलों में प्रवेश के समय बच्चों का उपनयन संस्कार होता था | इस संस्कार के बाद उनकी उच्च शिक्षा प्रारम्भ होती थी | 

व्यावसायिक शिक्षा - 

वैदिक काल में आज की व्यावसायिक शिक्षा को कर्म शिक्षा कहा जाता था | प्रारम्भिक वैदिक काल में यह शिक्षा छात्रों की योग्यता और क्षमता के आधार पर दी जाती थी और उत्तर वैदिक काल में छात्रों के वर्ण के आधार पर दी जाती थी | आधुनिक युग में व्यावसायिक शिक्षा सम्बन्धी उत्तर वैदिक कालीन विचार मान्य नहीं है | आज संसार के अधिकतर देशों में लोकतंत्र शासन प्रणाली है | लोकतंत्र मनुष्य-मनुष्य में किसी भी प्रकार का भेद नहीं करता | आज सभी मनुष्यों को अपनी योग्यता एवं क्षमतानुसार किसी भी प्रकार की व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त है और ऐसा ही प्रारम्भिक वैदिक काल में था | कहना न होगा कि यह देन भी वैदिक कालीन शिक्षा की ही है | और इस बीच व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र और स्वरूप में जो अन्तर हुआ है वह तो विकास प्रकिया का परिणाम है |

वैदिक शिक्षा प्रणाली के मुख्य अभिलक्षण | Main Characteristics of Vedic Education System

वैदिक काल में जिस शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ उसे वैदिक शिक्षा प्रणाली कहते है | पुरे वैदिक काल में शिक्षा का प्रशासन एवं संगठन तो सामान्यतः एक सा रहा परन्तु समय की परिस्थितियों और ज्ञान एवं कला-कौशल के क्षेत्र में विकास के साथ-साथ उसकी पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियों में विकास होता रहा | यहाँ वैदिक शिक्षा प्रणाली के मुख्य अभिलक्षणों (Main Features) का क्रमबध वर्णन प्रस्तुत है | 

शिक्षा का प्रशासन एवं वित्त (Administration  and finance of Education)

वैदिक शिक्षा प्रणाली के प्रशासन एवं वित्त के सम्बन्ध में तीन तथ्य उल्लेखनीय है | 
  1. राज्य के नियंत्रण से मुक्त - वैदिक काल में शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का उत्तरदायित्व नहीं था परिणामतः उस पर राज्य का कोई नियंत्रण भी नहीं था | उस पर शिक्षा पूर्णरूप से गुरुओं के व्यक्तिगत नियंत्रण में थी | 
  2. निःशुल्क शिक्षा - वैदिक काल में शिक्षा पूर्णरूप से निःशुल्क रही | शिष्यों के आवास एवं भोजन की व्यवस्था भी गुरु स्वयं करते थे | लेकिन शिक्षा पूर्ण होने पर शिष्य गुरुओं को अपनी सामर्थ्यनुसार गुरु दक्षिणा अवश्य देते थे |
  3. आय के स्रोत - दान, भिक्षा और गुरु दक्षिणा- वैदिक काल में गुरुकुलों को आज की भाँति राज्य से कोई निश्चित अनुदान प्राप्त नहीं होता था | उस समय राजा, महाराजा और समाज के धनीवर्ग के लोग इन गुरुकुलों को स्वेच्छा से भूमि , पशु , अन्न , वस्त्र , पात्र और मुद्रा दान स्वरूप भेंट करते थे | गुरुकुलों की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शिष्य समाज से नित्य भिक्षा माँग कर लाते थे | इन गुरुकुलों की आय का तीसरा स्रोत्र था - गुरु दक्षिणा | 

शिक्षा का उद्देश्य ( objectives of Education)



डॉ0 अल्तेकर के शब्दों में ईश्वर भक्ति तथा धार्मिकता की भावना , चरित्र निर्माण , व्यक्तित्व का विकास, नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का पालन , सामाजिक कुशलता की उन्नति और राष्ट्रिय संस्कृति का संरक्षण एवं प्रसार प्राचीन भारत में शिक्षा के मुख्य उद्देश्य एवं आदर्श थे | उस काल में शिक्षा को ज्ञान के पर्याय के रूप में लिया जाता था | इससे स्पष्ट है कि उस काल में शिक्षा का सर्वप्रमुख उद्देश्य ज्ञान का विकास था | समाज एवं राष्ट्र के प्रति कर्तव्य पालन और राष्ट्रीय संस्कृति के संरक्षण एवं विकास पर भी उस काल में विशेष बल दिया जाता था | मोक्ष की प्राप्ति तो उस काल में मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य माना जाता था और इसकी प्राप्ति के लिए शिक्षा द्वारा उसका आध्यात्मिक विकास किया जाता था | 
इन सब उद्देश्यों को हम आज की भाषा में निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं | 
  1. ज्ञान का विकास - यह वैदिक कालीन शिक्षा का सर्वप्रमुख उदेश्य था | तब ज्ञान को मनुष्य का तीसरा नेत्र माना जाता था | (ज्ञानं मनुजस्य तृतीयं नेत्रं) और यह माना जाता था | कि ये दो नेत्र तो हमें केवल दृश्य जगत का ज्ञान भर कराते है परन्तु यह तीसरा नेत्र हमें दृश्य और सूक्ष्म दोनों जगत का ज्ञान कराता है यह हमें सत्य - असत्य का भेद  स्पष्ट करता है , करणीय तथा अकरणीय कर्मो का भेद स्पष्ट करता है और भौतिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धियों को प्राप्त करने का मार्ग स्पष्ट करता है | 
  2. स्वास्थ्य संरक्षण एवं संवर्द्धन - ऋषि आश्रमों और गुरुकुलों में शिष्यों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के संरक्षण और संवर्द्धन पर विशेष बल दिया जाता था और उन्हें उचित आहार-विहार और आचार-विचार की शिक्षा दी जाती थी | शारीरिक स्वास्थ्य के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए शिष्यों को प्रातः ब्रम्हमुहूर्त में उठना होता था , दाँतून एवं स्न्नान करना होता था , व्यायाम करना होता था , सदा भोजन करना होता था , नियमित दिनचर्या का पालन करना होता था और व्यसनों से दूर रहना होता था | शिष्यों के मानसिक स्वास्थ्य के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए उन्हें उचित आचार-विचार  की ओर उन्मुख किया जाता था | 
  3. जीविकोपार्जन एवं कला-कौशल की शिक्षा - प्रारम्भिक वैदिक काल में शिष्यों को उनकी योग्यतानुसार कृषि, पशुपालन एवं अन्य कला-कौशलों की शिक्षा दी जाती थी | उस समय हमारा देश धन-धान्य से सम्पन्न था , लोग बहुत अच्छा जीवन जीते थे | परन्तु उत्तर वैदिक काल में ब्राह्मणों ने स्वार्थ के वशीभूत होकर कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था को जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था में बदल दिया जिसके परिणामस्वरूप लोगों को वर्णानुसार शिक्षा दी जाने लगी | वैदिक काल के इस अन्तिम चरण में शूद्रों को किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार से वंचित करना धूर्तता व स्वार्थ भरा कदम था वे शिक्षा अपने-अपने परिवारों में प्राप्त करते थे | 
  4. संस्कृति का संरक्षण एवं विकास - वैदिक काल में शिक्षा का एक उद्देश्य अपनी संस्कृति का संरक्षण और हस्तान्तरण था | उस काल में गुरुकुलों की सम्पूर्ण कार्य पद्धति धर्मप्रधान थी | उस काल में शिष्यों को वेद मन्त्र रटाए जाते थे , संध्या-वंदन की विधियाँ सिखाई जाती थी और आश्रम में प्रवेश करते थे और जंगलों में रहते हुए अध्ययन , चिंतन , मनन और निदिध्यासन करते थे और नए-नए तथ्यों की खोज करते थे | इनमे से कुछ लोग सन्यास आश्रम में प्रवेश करते थे और ध्यान और समाधि द्वारा मोक्ष प्राप्त करते थे | इससे इस देश की संस्कृति का संरक्षण और विकास हुआ | 
  5. नैतिक एवं चारित्रिक विकास - वैदिक काल में चरित्र निर्माण से तात्पर्य मनुष्य को धर्मसम्मत आचरण में प्रशिक्षित करने से लिया जाता था , उसके आहार-विहार और आचार-विचार को धर्म के आधार पर उचित दिशा देने से लिया जाता था |
  6. आध्यात्मिक उन्नति - वैदिक काल में शिक्षा का अंतिम और सर्वश्रेठ उद्देश्य मनुष्य के बाह्य एवं आंतरिक दोनों पक्षों को पवित्र बनाकर उन्हें चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति की ओर अग्रसर करना था | 

शिक्षा की पाठयचर्या (Curriculam of Education)

वैदिक काल में शिक्षा दो स्तरों में विभाजित थी- प्रारम्भिक और उच्च |

प्रारम्भिक शिक्षा की पाठ्यचर्या - वैदिक काल में प्रारम्भिक स्तर की पाठ्यचर्या में भाषा व्याकरण , छंदशास्त्र और गणना का सामान्य ज्ञान और सामाजिक व्यवहार एवं धार्मिक क्रियाओं के प्रशिक्षण को स्थान प्राप्त था | उत्तर वैदिक काल में उसमें नीतिप्रधान कहानियों को और जोड़ दिया गया | जो लोग अपने बच्चों को उच्च शिक्षा हेतु गुरुकुलों में प्रवेश दिलाना चाहते थे वे उन्हें संस्कृत भाषा और उसके व्याकरण का अपेक्षाकृत अधिक ज्ञान कराते थे | 
उच्च शिक्षा की पाठ्यचर्या - इस काल में उच्च स्तर पर संस्कृत भाषा और उसके व्याकरण तथा धर्म एवं नीतिशास्त्र की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी | प्रारम्भिक वैदिक काल में वैदिक साहित्य के विभिन्न ग्रंथों , कर्मकांड, ज्योतिर्विज्ञान , आयुविज्ञान , सैनिक शिक्षा , कृषि , पशुपालन , कला-कौशल , राजनीतिशास्त्र , भूगर्भशास्त्र और प्राणीशास्त्र की शिक्षा ऐच्छिक थी | उत्तर वैदिक काल में उच्च शिक्षा की इस पाठ्यचर्या में अनेक अन्य विषय सम्मलित किए गए., जैसे- इतिहास , पुराण, नक्षत्र विधा न्यायशास्त्र , अर्थशास्त्र , देव विधा , ब्रह्म विद्या और भूत विधा इसे विशिष्ट शिक्षा की संज्ञा दी जा सकती है | शिष्य इनमें से अपनी रूचि के कोई भी विषय अध्ययन करने के लिए स्वतंत्र थे |
वैदिक कालीन शिक्षा की पाठ्यचर्या को उसकी प्रकृति के आधार पर निम्नलिखित दो रूपों में विभाजित किया जाता है -
अपरा (भौतिक) पाठ्यचर्या - इसके अंतर्गत भाषा , व्याकरण , अंकशास्त्र, कृषि, पशुपालन, कला (संगीत एवं नृत्य ) , कौशल ( कताई, बुनाई, रंगाई, काष्ट कार्य , धातु कार्य एवं शिल्प ) , अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र , भूगर्भशास्त्र, प्राणिशास्त्र, सर्प विद्या, तर्कशास्त्र, जियोतिर्विज्ञान, आयुर्विज्ञान एवं सैनिक शिक्षा का अध्ययन और व्यायाम, गुरुकुल व्यवस्था एवं गुरु सेवा क्रियाएँ सम्मिलित थी | 
परा (आध्यात्मिक) पाठ्यचर्या - इसके अंतर्गत वैदिक साहित्य (वेद, वेदांग एवं उपनिषद ), धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्र का अध्ययन और इन्द्रिय निग्रह , धर्मानुकूल आचरण , ईश्वर भक्ति, संध्यावंदन और यज्ञादि क्रियाओं का प्रशिक्षण सम्मिलित था | 

शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods)

 वैदिक काल में शिक्षण सामान्यतः मौखिक रूप से होता था और प्रायः प्रश्नोत्तर , शंका-समाधान, व्याख्यान और वाद-विवाद द्वारा होता था  उस समय भाषा की शिक्षा के लिए अनुकरण विधि और कला-कौशल की शिक्षा के लिए प्रदर्शन एवं अभ्यास विधियों का प्रयोग किया जाता था | उपनिषदकारों  ने शिक्षण की एक बहुत प्रभावी विधि का विकास किया था जिसे श्रवण , मनन और निदिध्यासन विधि कहते है | साफ जाहिर है कि उस समय उपरोक्त सब विधियों का प्रयोग कुछ अपने ढंग से होता था अतः यहाँ इनके प्राचीन रूप को स्पष्ट करना आवश्यक है | 

अनुकरण, आवृत्ति एवं कंठस्थ विधि - अनुकरण विधि सिखने की स्वाभाविक विधि है | वैदिक काल में प्रारम्भिक स्तर पर भी इसका प्रयोग होता था - गुरु शिष्यों के सम्मुख वेद मन्त्रों का उच्चारण करते थे, शिष्य उनका अनुकरण करते थे, उन्हें बार-बार उच्चारित करते थे और इस प्रकार उन्हें कंठस्थ करते थे | 

व्याख्या एवं दृष्टांत विधि - वैदिक काल में शिष्यों को व्याकरण का कोई नियम अथवा वेदों का कोई मन्त्र कंठस्थ कराने  बाद गुरु उसकी व्याख्या करते थे , उसका अर्थ एवं भाव स्पष्ट करते थे और उसके अर्थ एवं भाव को स्पष्ट करने के लिए उपमा , रूपक और दृष्टान्तों का प्रयोग करते थे | 

प्रस्नोतर , वाद-विवाद और शास्त्रार्थ विधि - उत्तर वैदिक काल में उपनिषदों की शैली के आधार पर प्रस्नोतर, वाद-विवाद और शास्त्रार्थ विधियों का विकास हुआ | प्रारम्भिक वैदिक काल में गुरु उपदेश देते थे , व्याख्यान देते थे और शिष्य शान्तिपूर्वक सुनते थे , उत्तर वैदिक काल में शिष्य अपनी शंका प्रस्तुत करते थे और गुरु उनका समाधान करते थे | उच्च शिष्या में उच्च स्तर के शिष्यों और गुरुओं के बीच वाद-विवाद भी होता था | अति गूढ़ विषयों पर चर्चा हेतु अधिकारी विद्वानों के सम्मेलन भी बुलाए जाते थे , उनके बीच शास्त्रार्थ होता था , शिष्य इस सबको सुनते थे और अपने ततसंबंधी ज्ञान में वृद्धि करते थे | 

कथन, प्रदर्शन एवं अभ्यास विधि - वैदिक काल में कृषि , पशुपालन , कला-कौशल, सैन्य शिक्षा और आयुर्विज्ञान आदि क्रियाप्रधान विषयों की शिक्षा कथन , प्रदर्शन और अभ्यास विधि से दी जाती थी | गुरु सर्वप्रथम सिखाए जाने वाली क्रिया के सम्पादन की विधि बताते थे और फिर उसे स्वयं करके दिखते थे। , शिष्य उनका अनुकरण कर यथा क्रिया का अभ्यास करते थे और धीरे-धीरे उसमें दक्षता प्राप्त करते थे | 

श्रवण , मनन निदिध्यासन विधि - यह विधि भी उपनिषदकारों की देन है | उस काल में गुरु जो भी व्याख्यान देते थे , वेद मंत्रों आदि कि जो भी व्याख्या करते थे , धर्म , दर्शन एवं अन्य विषयों के संबंध में जो कुछ भी जानकारी देते थे , शिष्य उनको ध्यानपूर्वक सुनते थे, उसके बाद उस पर मनन करते थे, चिंतन करते थे | 

तर्क विधि - उत्तर वैदिक काल में तर्कशास्त्र जैसे गूढ़ विषयों के शिक्षण हेतु तर्क विधि का विकास हुआ | उस समय इस विधि के पाँच पद थे - प्रतिज्ञा , हेतु , उदाहरण , अनुपयोग और निगमन | 

कहानी विधि - उत्तर वैदिक काल में आचार्य विष्णु शर्मा ने राजकुमारों को नीति की शिक्षा देने के लिए कहानियों की रचना की | ये कहानियाँ पंचतंत्र और हितोपदेश के नाम से संग्रहीत हैं | कहानी सुनाने के बाद आचार्य शिष्यों से प्रश्न पूछते थे | इन प्रश्नों में अन्तिम प्रश्न यह होता था  कि इस कहानी से आपको क्या शिक्षा मिलती है | 

अनुशासन (Discipline)

प्रारम्भिक वैदिक काल में अनुशासन से तातपर्य शारीरिक , मानसिक और आत्मिक संयम से लिया जाता था | उस काल में शारीरिक , संयम से तातपर्य था - ब्रह्मचर्य व्रत का पालन , श्रृंगार न करना , सुगंधित पदार्थों का प्रयोग न करना , नृत्य एवं संगीत में आनंद न लेना , मादक पदार्थों का प्रयोग न करना, जुआ न खेलना , गाय न मारना , झूट न बोलना और चुगली न करना , मानसिक संयम से तातपर्य था - इन्द्रियनिग्रह , सत्य , अहिंसा , अस्तेय , अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का पालन और काम , क्रोध, लोभ , मोह और मद से दूर रहना , और सबके कल्याण के लिए कार्य करना | परन्तु उत्तर वैदिक काल में शिष्यों द्वारा गुरुओं के आदेशों  नियमों के पालन को ही अनुशासन माना जाने लगा और शिष्य इनका पालन नहीं करते थे उन्हें दण्ड दिया जाता था | शारीरिक दंड विशेष परिस्थितियों में ही दिया जाता था |

दोस्तों , नमस्कार मैं जतिन पाठक हु और उम्मीद है कि आपको मेरा ये आर्टिकल "Vedic Education System in Hindi | प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली" जो कि वैदिक और बौद्धिक काल की शिक्षा के बारे में सम्पूर्ण जानकारी देता है को पढ़ कर काफी ज्ञान मिला होगा इस विषय में और मैं इस विषय को अभी और भी up to date करता रहूँगा बस आप मुझसे इसी तरह जुड़े रहिएगा धन्यवाद | 









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